Monday, September 7, 2009

अंधों में काना राजा ...

बात बात में है घात, घात ही से शुरुआत
यहाँ हर बात के प्रपंच बन जाते हैं
झूठी प्रीत- रीत सी प्रतीत होती वहां जहाँ
जीत हेतु राजनीति मंच बन जाते हैं
अपनी निहारें नहीं औरों के न्याय करें
मठाधीश स्वयम विरंचि बन जाते हैं
ऐरे गैरे नत्थू खैरे जहाँ हों खड़े वहां पे
अन्धों में काने सरपंच बन जाते हैं